MBG-001 भगवद्गीता: परिचय एवं विषयप्रवेश
MBG-001 भगवद्गीता: परिचय एवं विषयप्रवेश Chapter Wise Notes गीता संस्कृत साहित्य काल में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व का अमूल्य ग्रन्थ है। यह भगवान् श्री कृष्ण के मुखारबिन्द से निकली दिव्य वाणी है। इकाई-1 श्रीमद्भगवद्गीता का परिचय एवं तरंग इसमें 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। इसके संकलन कर्ता महर्षि वेद ब्यास को माना जाता है। MBG-001 भगवद्गीता: परिचय एवं विषयप्रवेश आज गीता का विश्व की कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। जिससे इसकी कीर्ति दिगदिगंतर तक व्याप्त है।
श्रीमद्भगवद्गीता एक पैसा विलक्षण ग्रन्थ है जिसका पार आज तक कोई नहीं पाया है। अभिलेखागार – मास्टर ऑफ आर्ट्स (भगवद्गीता अध्ययन) इसका अध्ययन मनन चिन्तन करने पर नित्य नये भाव उत्पन्न होंगे कहा जाता है कि गीता में जितना भाव भरा है उतना बुद्धि में नहीं आता हैं। बुद्धि की एक सीमा है, और जब बुद्धि में आता है तब मन में नहीं आता और जब मन में आता है तब फिर कहने में नहीं आता है। यदि कहने में आता है तो लिखने में नहीं आता है। इस प्रकार गीता असीम है। गीता में ज्ञान योग, कर्मयोग, और भक्तियोग का वर्णन किया गया है। Geeta Introduction – श्रीमद्भगवद्गीता परिचय प्रस्तावना के अन्तर्गत गीता के 18 अध्यायों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है।
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अध्याय 1 :भगवतगीता परिचय एवं विषय प्रवेश
श्लोक: 47
मुख्य विषय: महाभारत का ऐतिहासिक संदर्भ, कुरुक्षेत्र का युद्धक्षेत्र, अर्जुन का विषाद, और गीता के उपदेश का आधार।
प्रस्तावना:
भगवद्गीता महाभारत के “भीष्मपर्व” का हिस्सा है, जो 18 अध्यायों और 700 श्लोकों में विभक्त है।
यह संवाद अर्जुन और श्रीकृष्ण के बीच कुरुक्षेत्र के रणभूमि में हुआ, जहाँ अर्जुन ने युद्ध से पहले मोह और संशय की स्थिति में श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन माँगा।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
पांडवों और कौरवों के बीच धर्मयुद्ध की आवश्यकता, जहाँ अधर्मी दुर्योधन ने पांडवों का राज्य हड़प लिया।
श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने, लेकिन उनका वास्तविक उद्देश्य आध्यात्मिक गुरु की भूमिका निभाना था।
अर्जुन का विषाद (दुःख):
अर्जुन ने युद्धभूमि में स्वजनों (भाई, गुरु, पितामह) को देखकर हथियार डाल दिए।
उसके मन में प्रश्न उठे: “क्या स्वजनों का वध करना धर्म है? क्या राज्य के लिए हिंसा उचित है?”
गीता का प्रारंभ:
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को “योग” का उपदेश देना शुरू किया, जो जीवन के हर पहलू को स्पर्श करता है।
महत्वपूर्ण श्लोक:
1.28-30: अर्जुन का शोक व्यक्त करना।
1.47: अर्जुन का श्रीकृष्ण से सहायता माँगना।
प्रासंगिकता:
गीता मनुष्य के आंतरिक संघर्ष (मोह, डर, कर्तव्य) को दर्शाती है और उसका समाधान “निष्काम कर्म” में खोजती है।
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अध्याय 2: विषयप्रवेश (सांख्य योग)
श्लोक: 72
मुख्य विषय: आत्मा की अमरता, कर्तव्यबोध, और निष्काम कर्म का सिद्धांत।
श्रीकृष्ण का उत्तर:
अर्जुन के भ्रम को दूर करने के लिए श्रीकृष्ण ने “सांख्य योग” (ज्ञानयोग) का प्रवचन शुरू किया।
प्रमुख बिंदु:
आत्मा अजन्मा और अमर है (2.20):
“न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।”
शरीर नश्वर, आत्मा शाश्वत: जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र बदलता है, वैसे ही आत्मा शरीर बदलती है।
कर्तव्य (धर्म) की प्रधानता:
अर्जुन को याद दिलाया कि क्षत्रिय का धर्म धर्मयुद्ध लड़ना है।
निष्काम कर्म: फल की इच्छा छोड़कर कर्म करो। (2.47)
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
स्थितप्रज्ञ की परिभाषा:
जो व्यक्ति सुख-दुःख, लाभ-हानि में समभाव रखता है, वही योगी है।
लक्षण: मन पर नियंत्रण, इंद्रियों का संयम, और आत्मज्ञान।
प्रमुख श्लोक:
2.14: सुख-दुःख को समान समझना।
2.62-63: कामना → क्रोध → मोह → विनाश की श्रृंखला।
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अध्याय 3: गीतोत्पत्ति के विषय (कर्म योग)
श्लोक: 43
मुख्य विषय: गीता की उत्पत्ति, कर्मयोग का महत्व, और ज्ञान-कर्म का समन्वय।
गीता की उत्पत्ति:
गीता का ज्ञान सनातन है; श्रीकृष्ण ने इसे सूर्यदेव से अर्जुन तक पहुँचाया (4.1)।
वेदव्यास की भूमिका: महाभारत के रचयिता ने गीता को लिपिबद्ध किया।
कर्मयोग की व्याख्या:
ज्ञान और कर्म का संतुलन:
सांख्य (ज्ञान) और योग (कर्म) दोनों मोक्ष का मार्ग हैं।
3.8: “नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।”
(अकर्म की तुलना में कर्तव्यपूर्ण कर्म श्रेष्ठ है।)
यज्ञ की अवधारणा:
समाज के लिए कर्म करना ही यज्ञ है, जो ईश्वर को समर्पित हो।
लोकसंग्रह: अपने कर्म से समाज को प्रेरित करना।
आलस्य का निषेध:
श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म न करने का बहाना अज्ञान है।
3.33: “सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।”
(ज्ञानी भी प्रकृति के गुणों के अनुसार कर्म करते हैं।)
अध्याय 4: विषादयोग (ज्ञान-कर्म-संन्यास योग)
श्लोक: 42
मुख्य विषय: अर्जुन के विषाद का निवारण, अवतारवाद, और यज्ञ के प्रकार।
अवतार का रहस्य:
श्रीकृष्ण ने स्वयं को युग-युग में अवतार लेने वाले परमात्मा के रूप में प्रकट किया।
4.7-8: “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति…”
ज्ञान की श्रेष्ठता:
ज्ञानी व्यक्ति सभी कर्मों को जलते हुए अंगारों की तरह त्याग देता है।
4.19: “यस्य सर्वे समारम्भाः…” (जिसके सभी कर्म इच्छारहित हैं।)
यज्ञ के प्रकार:
द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, और ज्ञानयज्ञ।
4.33: “सर्वाणि नियमकर्माणि…” (ज्ञानयज्ञ सभी यज्ञों से श्रेष्ठ है।)
अर्जुन को संदेश:
संदेह त्यागो, कर्म करो, और ज्ञान प्राप्त करो।
अध्याय 5: तत्व विवेचन (कर्मसंन्यास योग)
श्लोक: 29
मुख्य विषय: संन्यास और कर्मयोग का एकीकरण, आत्मज्ञान की प्राप्ति।
संन्यास बनाम कर्मयोग:
श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म करते हुए भी मन से संन्यासी बना जा सकता है।
5.2: “संन्यासः कर्मयोगश्च…” (दोनों मोक्ष दिलाते हैं, पर कर्मयोग सरल है।)
ब्रह्मज्ञानी की पहचान:
जो सभी प्राणियों में आत्मा देखता है, वही सच्चा ज्ञानी है।
5.18: “विद्याविनयसंपन्ने…” (ज्ञानी समदर्शी होता है।)
ध्यान और समाधि:
इंद्रियों को वश में करके ही मन शांत होता है।
5.27-28: “शनैः शनैरुपरमेद्…” (ध्यान द्वारा मन को नियंत्रित करो।)
अध्याय 6: जीवन दर्शन की तारतम्यता (ध्यान योग)
श्लोक: 47
मुख्य विषय: ध्यानयोग का विज्ञान, आत्मनियंत्रण, और योगी के लक्षण।
योगी की परिभाषा:
6.5: “उद्धरेदात्मनात्मानं…” (मनुष्य स्वयं अपना मित्र या शत्रु है।)
योगी वह है जो सभी प्राणियों से मैत्रीभाव रखता है।
ध्यान की विधि:
एकांत स्थान में सुखासन पर बैठकर, मन को एकाग्र करना।
6.10-15: आसन, श्वास नियंत्रण, और मन की शुद्धि।
असफल योगी का पुनर्जन्म:
प्रयास करने वाला योगी कभी नष्ट नहीं होता; अगले जन्म में वह पुनः प्रयास करता है।
अध्याय 7: आत्मा एवं स्थितप्रज्ञ (ज्ञानविज्ञान योग)
श्लोक: 30
मुख्य विषय: परमात्मा का स्वरूप, प्रकृति के गुण, और भक्ति का महत्व।
परमात्मा का ज्ञान:
श्रीकृष्ण स्वयं को सृष्टि के आदि-मध्य-अंत (7.6) और सभी वस्तुओं का सार बताते हैं।
8 प्रकृतियाँ (7.4-5): भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार।
भक्ति की शक्ति:
7.21-22: जो भक्त सच्चे मन से पूजा करता है, उसे श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त होती है।
तीन प्रकार के भक्त: आर्त (संकट में), जिज्ञासु (ज्ञान चाहने वाला), अर्थार्थी (लाभ के लिए)।
स्थितप्रज्ञ के गुण:
2.55-72: वह व्यक्ति जो इंद्रियों को वश में कर चुका है, समदर्शी है, और सर्वभूतों में आत्मा देखता है।
निष्कर्ष:
भगवद्गीता का यह प्रारंभिक भाग मनुष्य को जीवन के मूलभूत प्रश्नों—कर्म, धर्म, मोक्ष—का समाधान देता है। प्रत्येक अध्याय व्यावहारिक जीवन में आत्मसात करने योग्य सिद्धांत प्रस्तुत करता है, जो आधुनिक युग में भी प्रासंगिक हैं।
महत्वपूर्ण प्रश्न
प्रश्न-1 गीता का रचनाकाल निर्धारित कीजिये ?
प्रश्न-2 त्रिविध मार्ग क्या है, संक्षिप्त परिचय देते हुये इसमें समन्वय का प्रतिपादन कीजिये ?
प्रश्न-3 गीता का कौन सा एक अध्याय आपको सर्वाधिक रूचिकर लगा, उसका सारांश लिखिये ?
प्रश्न-4 निष्काम कर्मयोग से क्या समझते है, इसका विस्तृत वर्णन कीजिये ?
1. भगवद्गीता के रचनाकाल पर प्रकाश डालिए ?
2. भगवद्गीता का काल निर्धारण महाभारत के आलोक में ही सम्भव है। इस कथन की समीक्षा कीजिए।
3. भगवद्गीता के रचनाकाल निर्धारण सम्बन्धी विभिन्न समस्याओं की विवेचना कीजिए।
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